वो कश्मीरी ऑटो वाला ...

आज वॉलेट में कुछ ढूँढ़ते हुए ये रेवेन्यू स्टैम्प मिली, पुराने जम्मू और कश्मीर की. 5 अगस्त 2019 से पहले पूरे भारत में 1 रुपये वाली रेवेन्यू स्टैम्प होती थी पर सिर्फ जम्मू और कश्मीर में ये 2 रुपये वाली ‘बिल एंड रिसीप्ट’ स्टैम्प होती थी जो ये याद दिलाती थी की बाकी हिंदुस्तान के नियम और कानून यहाँ नहीं चलते.

 


ख़ैर किस्सा ये नहीं है की जम्मू और कश्मीर की रेवेन्यू स्टैम्प अलग होती थी, किस्सा ये हैं की ये मेरे पास कैसे आयी.   

 

साल 2014 में श्रीनगर की डल लेक के बैथेमेट्रिक सर्वे का टेंडर निकला था. आसान शब्दों में ये किसी वॉटर बॉडी के अंदर का टोपोग्राफी सर्वे होता हैं, पानी के अंदर क्या हैं, किस जगह हैं, ये सब इस सर्वे में पता चल जाता हैं. अब वैसे मैं जिस कोरियाई कंपनी की इंडियन डिवीज़न का बिज़नेस डेवलपमेंट हैड करता था, वो बैथेमेट्रिक सर्वे नहीं करती थी पर श्रीनगर में टेंडर हैं, इस बहाने घूमने का मौका मिलेगा, ये सोच कर मैंने एक एक्सपर्ट कंपनी से जॉइंट वेंचर किया और टेंडर लेकर पहुँच गया श्रीनगर.

 

टेंडर की एक स्पेशल कंडीशन थी - फाइनेंसियल बिड यानी की जिसमे आप अपना प्राइस प्रपोजल देते हैं, उसको रेवेन्यू स्टैम्प लगा कर सील करना था. अब क्यूंकि मैं दिल्ली से पूरा सील्ड टेंडर लेकर जा रहा था और क्यूंकि मेरे लिए रेवेन्यू स्टैम्प का मतलब वो पोस्ट ऑफिस में मिलने वाली 1 रुपये की स्टाम्प होती थी, इसीलिए आराम से दिल्ली में पूरा टेंडर बनाया, अच्छे से पैक किया और फ्लाइट से सीधा श्रीनगर.

 

बिलकुल डल लेक के सामने बुलेवार्ड रोड पर एक होटल में मैंने चेक-इन किया और बचे हुए पूरे दिन आराम से शिकारा का मज़ा लिया, काम सारा कम्पलीट था इसीलिए टेंशन कुछ थी नहीं. टेंडर सबमिट करने का टाइम था अगले दिन दोपहर 3 बजे.   

 

श्रीनगर की एक ख़ास बात हैं - वहां कभी भी कर्फ्यू लग जाता हैं जिसकी घोषणा कभी कभी 3 या 4 घंटे पहले ही दी जाती हैं। पर ज़्यादातर ऐसे कर्फ्यू का मतलब सिर्फ बाजार बंद होना होता हैं, सरकारी ऑफिस खुले रहते हैं, कुछ इलाकों को छोड़ कर पब्लिक ट्रांसपोर्ट भी चलता रहता हैं.

 

तो अगले दिन पता चला 11 बजे से 3 बजे का कर्फ्यू है, इसीलिए मैं सुबह 9 बजे ही होटल के सामने से ऑटो पकड़ कर अथॉरिटी के ऑफिस पहुँच गया. ऑटो वाले को बोला थोड़ा वेट कर सकते हो, बस थोड़ी देर में वापिस होटल चलना हैं - शाहिद नाम था उसका, “बिलकुल सर मैं यही हूँ, आप आ जाइये. वैसे भी आज कर्फ्यू हैं, आपको होटल छोड़कर मैं भी घर चले जाऊँगा”.

 

इंग्लिश में एक कहावत हैं जिसका हिंदी में ट्रांसलेशन है - अगर तमन्नाएं घोड़े होती तो भिखारी भी सवारी करते, इसका मतलब मुझे उस दिन समझ आने वाला था.

 

ऑफिस के अंदर सिर्फ एक क्लर्क था, उसके साथ चाय पीने बैठ गया. बातों बातों में पता चला की जम्मू कश्मीर की तो रेवेन्यू स्टैम्प अलग होती हैं, और मिलती भी कोर्ट में हैं. अब मेरी हवा टाइट - टेंडर सबमिट कराना हैं पर बिना सही रेवेन्यू स्टैम्प के तो रिजेक्ट हो जायेगा और कर्फ्यू शुरू होने में सिर्फ बचे हैं डेढ़ घंटे. 

 

फ़ौरन बाहर आया और शाहिद को बोला जल्दी कोर्ट की तरफ ले. कोर्ट पहुँच के पता चला की क्यूंकि कर्फ्यू हैं इसीलिए आज कोई नहीं आया. पूरे कोर्ट कैंपस में कोई वकील नहीं, कोई स्टाफ़ नहीं, सिर्फ हर जगह पुलिस या मिलिट्री. 

 

शाहिद ने पूछा सर क्या हुआ तो मैंने कहा यार तुम्हारे यहाँ एक अलग रेवेन्यू स्टैम्प होती हैं जो मुझे चाहिए और वो यहाँ कोर्ट में ही मिलती हैं. शाहिद ने अपने किसी दोस्त को फ़ोन मिलाया, जिसने किसी वक़ील का नंबर दिया की इनसे मिल लो इनके पास ज़रूर होगी. शाहिद ने फ़ौरन बात करी तो वक़ील साहब ने घर बुला लिया, इन सब के बीच 11 बज गए और लग गया कर्फ्यू. 

 

अब हम चले वक़ील के घर, सड़क पर इक्की दुक्की गाड़ियां और हमारा ऑटो, हर थोड़ी दूर पर पुलिस या मिलिट्री की पिकेट. ख़ैर किसी ने नहीं रोका और हम आख़िरकार पहुँच गए - छोटा सा मोहल्ला था, एक दूकान की दीवार पर काले पेंट से धुंधला सा लिखा नज़र आ रहा था - "गो बैक इंडियन डॉग्स" जैसे किसी ने बहुत पहले लिखा हो और बाद में किसी ने मिटाने की कोशिश करी हो.

 

ख़ैर शहीद वक़ील साहब के घर गया और 5 मिनट बाद आकर मुझे भी अंदर ले गया. अंदर वक़ील साहब ने 2 रुपये की स्टैम्प के 10 रुपये मांगे, मैंने भी दिमाग नहीं चलाया और 50 रुपये देकर 5 स्टैम्प ले ली.

 

अब दूसरी मुसीबत - टेंडर तो मैं खोल के दुबारा स्टाम्प लगा कर सिग्नेचर कर सकता था पर कटर, टेप, पैक करने के लिए चार्ट पेपर कहाँ से लाऊं.  

 

शाहिद को बताया की भाई किसी स्टेशनरी की दुकान पर ले चल. पर क्यूंकि कर्फ्यू में बाजार बंद होते हैं इसीलिए कोई भी दुकान खुली नहीं थी. शाहिद ने दो तीन फ़ोन घुमाये तो किसी ने सलाह दी 'डल गेट' चले जाओ, वहां दुकानें खुली हैं. 

 

डल गेट पहुँच कर देखा सब बंद, सिर्फ फ़ल सब्ज़ी की दुकानें खुली थी. एक सब्ज़ी वाले को अपनी प्रॉब्लम बताई तो उसने कहा की आगे एक कॉपी किताब की दुकान हैं और उसके मालिक़ का घर दुकान के ऊपर ही हैं. दुकान पहुँच कर शाहिद बोला आप बैठो मैं घर जाकर बात करता हूँ. थोड़ी देर में नीचे आया और बोला की दुकान वाला मान नहीं रहा था क्यूंकि चालान काट जायेगा पर मैंने बोला हैं की दिल्ली से सर आये हैं, क्या बोलेंगे की इतनी सी भी मदद नहीं करी किसी ने, तो वो अभी थोड़ी देर में दुकान का आधा शटर खोलेगा आप जल्दी से अंदर चले जाना फिर वो शटर डाउन कर देगा.

 

कोई 20 मिनट बाद दुकानदार नीचे उतरा और आधा शटर खोल मुझे अंदर बुला लिया. आराम से उसकी दुकान में पहले टेंडर खोला, स्टैम्प लगायी, वापिस पूरा पैक किया और आधे शटर के नीचे से वापिस बाहर, बिलकुल आर्मी के एक कोवर्ट ऑपरेशन की तरह जिसकी जानकारी सिर्फ तीन लोगों को थी - मुझे, शाहिद को और दुकान के मालिक को. 

 

टेंडर लेकर ऑटो में बैठा और शाहिद को बोला धन्नो को दौड़ा ले भाई, बसंती की इज़्ज़त का सवाल हैं. लगभग 2 बजे अथॉरिटी के ऑफिस पहुंचा और टेंडर सबमिट करा दिया. वापिस होटल आकर शाहिद को ज़्यादा पैसे दिए तो उसने नहीं लिए. मैंने कहा पैसे नहीं ले रहा तो कोई बात नहीं पर मुझे कल श्रीनगर लोकल घुमा सारी जगह. सो अगले दिन सुबह शाहिद होटल पहुँच गया और सब जगह घुमाया - शंकराचार्य मंदिर, निशात बाग़, शालीमार बाग़, चश्मे शाही, जामिआ मस्जिद, हजरतबल.  

 

उस दिन शाहिद न होता तो वो टेंडर मैं सबमिट नहीं करा पाता और ऐसा पहली बार होता. मैंने गाजियाबाद में अथॉरिटी के टेंडर सबमिट कराये हैं तब भी जब दूसरे ठेकेदार के लोग गेट पर खड़े हो जाते थे और दूसरी कंपनियों के टेंडर को सबमिट ही नहीं करने देते. पटना में टेंडर सबमिट कराये हैं, जहाँ हमेशा ये डर होता था की अभी कोई मारुती वैन आएगी, जिसमे से 3-4 आदमी उतरेंगे और तुम्हारे हाथ से टेंडर छीन के ले जायेंगे. श्रीनगर का वो टेंडर एक काले धब्बे की तरह मेरे दिमाग में छप जाता.  

 

ख़ैर ना वो टेंडर मिला, ना दुबारा कभी शाहिद - पर एक ज़िन्दगी भर सुनाने के लिए एक किस्सा ज़रूर मिल गया.

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