निजीकरण के कारण (भाग एक)
साल 2016 की बात है, जिस कंपनी में में जॉब करता था उसका ऑफिस राजौरी गार्डन से डीएलएफ टॉवर मोती नगर शिफ्ट हुआ था, मुश्किल से 5 किलोमीटर दूर.
डीएलएफ टॉवर मोती नगर, एक बहुत ही बड़ी कमर्शियल बिल्डिंग हैं जिसमें मल्टी नेशनल कंपनियों, प्राइवेट और सरकारी बैंकों के ऑफिस और ब्रांच हैं. बिल्कुल साथ में डीएलएफ कैपिटल ग्रीन प्रोजेक्ट हैं जिसमें डेढ़ करोड़ से लेकर सात करोड़ तक के एक हज़ार से ज़्यादा फ्लैट हैं.
तो बात ये थी कि ऑफिस में एक लैंडलाइन कनेक्शन था, एमटीएनएल का जिसके साथ ब्रॉडबैंड भी था. जब ऑफिस शिफ्ट हुआ तो सोचा चलो एमटीएनएल का नंबर ट्रांसफर करा लेते हैं, पुराना नंबर हैं. अब एमटीएनएल में ऑनलाइन अप्लाई करने की सुविधा या कस्टमर केयर की सुविधा तो आप सोच नहीं सकते, ख़ैर पास में ही राजौरी गार्डन का टेलीफोन एक्सचेंज हैं तो वहीं चले गए ट्रांसफर अप्लाई करने. "वहां तो ट्रांसफर नहीं हो सकता, लाइन ही नहीं पड़ी हैं. आपको नंबर सरेंडर करना पड़ेगा" - ये उस डिपार्टमेंट का जवाब था जिसके पास दिल्ली में कहीं भी खुदाई करने की डिफॉल्ट परमिशन हैं.
एयरटेल में फोन किया, कस्टमर केयर वाली लड़की ने ऐसे बात करी जैसे रिश्ते के लिए देखने गए हैं. दूसरे दिन कनेक्शन लग गया, इंटरनेट की स्पीड में दिक्कत थी तो चौथे दिन पूरी तार नई डाल दी, बिल्कुल फ्री. थोड़े दिन बाद राउटर को ऑफिस के दूसरे कोने में शिफ्ट किया तो पूरी वायरिंग दुबारा कर गए. इस बीच रिलायंस वाले दो बार अपना पैंफलेट दे गए की हमारी तार दो हफ्ते के अंदर डल जाएगी, सेवा का मौका दीजिएगा.
इस तरह से एमटीएनएल का एक 5 साल पुराना कॉर्पोरेट कस्टमर एयरटेल की झोली में गिरा. दिल्ली के बीच में एक नामी कमर्शियल बिल्डिंग जिसके आस पास नए प्रोजेक्ट्स की भरमार है वहां एमटीएनएल तार ना होने का रोना रोता रहेगा और एयरटेल / रिलायंस झोली भर भर के नए कनेक्शन लेते रहेंगे.
कुछ दिन पहले सरकार ने घाटे में जा रही बीएसएनएल और एमटीएनएल में अपनी हिस्सेदारी बेचने का फैसला लिया. क्यूंकि किसी ज़माने में सिर्फ यही होती थी टेलीकॉम सेक्टर के नाम पर, इसीलिए दोनों सरकारी कंपनियों के पास खरबों रुपए के एसेट्स हैं पर एम्पलॉइज की सैलरी तो एसेट्स से नहीं दी जा सकती, उसके लिए चाहिए रेवेन्यू जो आ नहीं रहा.
तो अब सरकार ने फैसला किया कि अपनी कुछ हिस्सेदारी बेच देते हैं पर शुरू हो गया विरोध. निजीकरण हाय हाय, देश बेचना बंद करो, फसिस्ट सरकार मुर्दाबाद..
कोई सरकार निजीकरण नहीं करना चाहती, क्यूं कोई अपनी कमाई में नुकसान करना चाहेगा ? पर शर्त ये हैं कि कमाई तो हो. ये पुराना समय नहीं है जहां फोन में आयी दिक्कत को अपनी सहूलियत से ठीक करने आए लाइनमैन को ऊपर से बख्शीश भी देनी पड़ती थी. ये जो कस्टमर केयर वालों को भर भर कर गालियां देते हैं हम आज अगर अगले दिन कंप्लेंट ठीक ना हो तो, याद करें वो टाइम जब ऊपर से अप्रोच लगवानी पड़ती थी कंप्लेंट पर एक्शन के लिए.
विरोध करने वाले सबसे पहले अपने एयरटेल / जियो / वोडाफोन-आइडिया सरेंडर करे और बीएसएनएल का कनेक्शन ले, घर का ब्रॉडबैंड एमटीएनएल पर शिफ्ट करें और फिर विरोध करें. आज जो सर्विस देगा वो टिकेगा, जो नहीं देगा वो उखड़ेगा और अंत में बिकेगा, चाहे आपको या मुझको पसंद हो या ना हो. सरकारी कंपनियां कोई अपवाद नहीं हैं और अगर आपकी सोच इससे अलग हैं तो ये सोच आज के युग में अपवाद हैं.
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